शनिवार, 25 जून 2016

'शाके'

 

मन करता है जयचंदों को शूली पे लटकाऊ में ।
कीकर के काँटों की डंडी इनपे खूब बजाऊं में ।
सुलग रहा है क्या-क्या दिल में कैसे  तुम्हें बताऊँ में ।  
कील ठोक कै सर में इनके वन्दे-मातरम गाउँ में ।।

है कुछ ऐसे जीव धरा पै जिन्हें निशाचर कहते हैं ।      
ये भी उनके ही बन्धु है बस बीच हमारे रहते है।
गरज पड़े तक ही ये अपनी मर्यादा में रहते है।
वर्ना तो ये बहन-बेटियों को भी रंडी कहते है ।।

अब भी ग़र हम नहीं जागे तो सोते ही रह जायेंगे ।
आने वाली नस्लों को आखिर क्या देकर जायेंगे ।
ग़र आँख मूँद कर बैठे तो फिर से 'शाके'* हो जायेंगे ।
सम्मान ही सब -कुछ होता है इसको भी खोकर जायेंगे ।।

* शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ |

 

 



1 टिप्पणी:

Zee Talwara ने कहा…

मन करता है जयचंदों को शूली पे लटकाऊ में ।
कीकर के काँटों की डंडी इनपे खूब बजाऊं में ।
सुलग रहा है क्या-क्या दिल में कैसे तुम्हें बताऊँ में ।
कील ठोक कै सर में इनके वन्दे-मातरम गाउँ में ।।

बहुत ही सुन्दर लिखा है ! धन्यवाद। Visit Our Blog