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कभी सुर्ख़ी थी इस पे भी, ज़र्द जो आज है चेहरा
हर एक कतरा लहू का ज़िस्म से किसने जला डाला !
ये जाति धर्म की बातें ,ये बातें है सियासत की
सियासत की इन्ही बातों ने मुल्कों को जला डाला !
कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला !
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एहसास
1 हफ़्ते पहले
22 टिप्पणियां:
कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
Bahut dinon baad likha hai aapne par bada zabardast likha hai!
बहुत सुन्दर गज़ल....जाती को जाति कर लें...
Vaah!
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
wah wah wah......
bahut dino ke intzar ke bad aapki sundar kavita padhne ko mili..bahut khoob...
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला
हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ
आपकी एक एक बात दिल में उतर गई. बहुत गहराई है आपकी बात में आपकी इस पोस्ट को पढ़ कर मुझे अपनी एक कविता याद आ गई.
"प्रपंच"
दर्द की दीवार हैं,
सुधियों के रौशनदान.
वेदना के द्वार पर,
सिसकी के बंदनवार.
स्मृतियों के स्वस्तिक रचे हैं.
अश्रु के गणेश.
आज मेरे गेह आना,
इक प्रसंग है विशेष.
द्वेष के मलिन टाट पर,
दंभ की पंगत सजेगी.
अहम् के हवन कुन्ड में,
आशा की आहुति जलेगी.
दूर बैठ तुम सब यहाँ
गाना अमंगल गीत,
यातना और टीस की,
जब होगी यहाँ पर प्रीत.
पोर पोर पुरवाई पहुंचाएगी पीर.
होंगे बलिदान यहाँ इक राँझा औ हीर.
खाप पंचायत बदलेगी,
आज दो माँओं की तकदीर.
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला बहुत सुन्दर रचना।
अमावस की रात में अँधेरा भागने को खुद को ही जला डाला ...
दीप बन कर जल गया कोई ...!
अच्छी रचना ..!
सुन्दर रचना!
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देशभक्ति का भाव जगाती हुई!
Yaar....Aap to badaa achha likhte ho. Ye jo 'kisi phool si beti ko....vaali line hain...bahut hi damdaar hain.
Itna achha likhne ke liye Dhanyabaad.
बहुत खूब ............शब्दों की जुबानी कह डाली सारी कहानी
dil ko jhakjhor gai aapki yah rachna.bahut badhiya.
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
poonam
अमावास की रात में उजाला करने की ख्वाहिश में खुद को जला डालने वाले वीरों को नमन. लेकिन विडम्बना यह है कि ऐसे वीरों को सिरफिरों की उपमा दी जाती है.
ये जाति धर्म की बातें ,ये बातें है सियासत की
सियासत की इन्ही बातों ने मुल्कों को जला डाला !
आपका शेर बिल्कुल बज़ा है ... सियासत इस मुल्क को रोज़ डुबो रही है ...
neer ji,
saare sher bahut umdaa hai, aapne yahi rachna us din bhi hum sabhi ko sunaya thaa. ye sher behad pasand hai...
अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला !
bahut shubhkaamnaayen.
'बात-बेबात' पर आपकी टिप्पणी पढ़ी और आपके ब्लॉग तक न आता तो आप पता नहीं क्या सोचते. वैसे भी वादा कर चुका था आने का, फिर मुकरने का मौक़ा भी खो चुका था.
आपकी गजल पढ़ी, बहुत अच्छे कंटेंट उठाए हैं आपने, एक सलाह देना चाहता हूँ, आदत से मजबूर हूँ, बगैर बोले - टोके रह नहीं पाता- आपके अंदर गजब की इंस्टिंक्ट है, उसे उभारें और निखारें. किसी अच्छे रचनाकार से कुछ दिन अपनी रचनाओं पर परामर्श लें, यकीन करें, कुछ ही दिनों में आप गजल के नामचीन फनकारों में गिने जाएँगे.
अगर मेरा टोकना बुरा लगा हो तो भी मुझे बता दीजिएगा.
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
अब क्या कहूँ इसपर ?????
बहुत बहुत बहुत आशीष....माँ सरस्वती अपनी कृपा सदा बनाये रखें तुमपर....
लाजवाब लिखा है...लाजवाब !!!
इस शेर को यूँ ही नहीं भूल पाउंगी...
लिखते रहो...ईश्वर तुम्हारी संवेदनाओं तथा अभिव्यक्ति क्षमता को असीम प्रखरता प्रदान करें...
bhavnapoorna kavita.
AAP mey anubhooti ka satya dekhney ki chamta hai.Mery blog par aaney ke liye dhanyavad.
Dr.Bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
bahut khoob likha hai sir ji
सुन्दर रचना!
... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!
कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
bahut marmik rachna aur satik bhi ,main to kuchh kah nahi paa rahi ,sundar ,haardik badhai sweekaare swantrata divas ki .jai hind .
चाँद और धरा की दूरी नापते नापते यहाँ ज़माने की ज़मीन पर उतर आए... सच में ज़माना भी हमीं से है फिर भी उसके पेच ओ ख़म नहीं समझ पाते... भावमयी रचना है
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