शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

जिंदगी क़र्ज़ है



इतना
तो मुझको भी मालूम था
साथ साया अंधेरों में रहता नही
मेरे सरपे था सूरज चमकता हुआ
मगर मेरे क़दमों में साया ना था

बन के मैं जोगी भटकता रहा
जिगर में कहीं दर्द पलता रहा
सिसकता रहा आह भरता रहा
बेखुद था क्या-क्या मैं करता रहा !

रूह बेचैन है दिल भी मजबूर है
अब तो, ये चेहरा भी बे-नूर है
आखिरी वक़्त है अब जवां दर्द है
जिंदगी क़र्ज़ थी जिंदगी क़र्ज़ है



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12 टिप्‍पणियां:

आमीन ने कहा…

आखिरी वक़्त है अब जवां दर्द है
जिंदगी क़र्ज़ थी जिंदगी क़र्ज़ है ।


अच्छी रचना के लिए बधाई

http://dunalee.blogspot.com/

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

्बढिया रचना है।बधाई।

M VERMA ने कहा…

बहुत अच्छी रचना

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर रचना .. बधाई !!

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर रचना. धन्यवाद

राजीव तनेजा ने कहा…

बहुत ही उम्दा रचना

शरद कोकास ने कहा…

अभी तो लगे रहो भाई ,,

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

WAH KYA BAAT HAI, ZINDGI KARZ THI
ZINDGI KARZ HAI.

श्रद्धा जैन ने कहा…

इतना तो मुझको भी मालूम था
साथ साया अंधेरों में रहता नही
मेरे सरपे था सूरज चमकता हुआ
मगर मेरे क़दमों में साया ना था ।

bahut sahi baat
andhere mein hi nahi aajkal chamkte suraj ke saath bhi saya nahi hai

रंजना ने कहा…

पीडा को अपने शब्दों में संवार तुम हमेशा ही उसे अत्यंत प्रभावोत्पादक बना दिया करते हो....
बहुत ही सुन्दर रचना....

लेकिन.... कुछ हौसलों की बात भी किया करो...शाम को तो बहुत उकेरा ,कुछ सुबह की भी बात करो...

मैं की जगह सब जगह में हो गया है,प्लीज उसे sudhaar लो..

Naveen Tyagi ने कहा…

jindgi se itna khafa kyon rahte ho bhai.

daanish ने कहा…

जिंदगी क़र्ज़ थी जिंदगी क़र्ज़ है ।
मायूस जज़्बात की तस्वीर पेश करती हुई
उदास रचना ...
लेकिन बुनावट बहुत अच्छी है
रंग कोई भी हो ....
कला परखी जाती है