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अब क्या डुबोयेंगीं मुझे तूफां की ये मौजें साहिल हूँ समुन्दर का कोई कस्ती नहीं हूँ मैं !अब क्या बुझायेंगी मुझे गम की ये आंधियां जलता हूँ अनल जैसे कोई दीपक नहीं हूँ मैं !ना खौफ रहबरी काना डर है दुश्मनों से अभेद दुर्ग हूँ एक कोई बस्ती नहीं हूँ मैं !दरिया को मोड़ने का रखता हूँ हौसला भी जरा, लड़ने दे वक़्त से अभी हारा नहीं हूँ मैं !मंथन तो कर के देख अमृत भी मिलेगा समेटे हूँ मैं सागर को कोई दरिया नही हूँ मैं !!..
ऊँची-ऊँची चट्टानों से
'नीर' गिरा निर्झर कहलाया
चोट लगी जो तन-मन मेरे
जग निर्मोही देख ना पाया !
झर-झर,झर-झर बहता जाए
दर्द को अपने सहता जाए
कोई ना जाने पीर पराई
लहू जिस्म का कहता जाए !
मेरे दर पे जो भी आया
मैंने सबको प्यासा पाया
प्यास बुझाई मैंने उसकी
जिसने मुझको गले लगाया !
ना राही ना कोई मंजिल
देख के राहें पग बढ़ जाए
इस जीवन का सार यही है
औरों की खातिर मिट जाए !
दर्द ने मुझको कभी जमाया
कभी जला के भाप बनाया
रंगहीन पानी में सबने
अपना-अपना रंग मिलाया !
इश्क में फूल चुने थे जो तेरी आंखों से !बनके अब शूल उगे हैं वो मेरी आंखों से !!काँप जाती है मेरी रूह वफ़ा की बातों से !छलक ना जाए लहू दिल का मेरी आंखों से !!मिलाई तुमसे नज़र हम ये भूल कर बैठे !छिन गए सारे हसीं ख्वाब मेरी आंखों से !!है ये हस्ती-ए-ज़ज्बात की आंधी के निशां !बन के आँसू जो बहे आज मेरी आंखों से !!लगी थी आग जो दिल में वो बुझा दी मैंने !फ़िर क्यूँ ? उठता है धुंआ 'नीर' मेरी आंखों से !!
श्याह काली रातों में कुछ अहसासों के रेले ख्वाहिशों की गठरी लेकर मेरे पास आते हैं ! एक-एक कर सारे अहसास अपनी ख्वाहिशों की गठरी मेरे आगे खोलकर मुझसे मांगते हैं ! उन सारे अनछुए लफ्जों को जो मैंने कभी चुने थे ख्वाहिशों के साथ मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे लिए ! अब ना वो ख्वाहिशें है ना वो सारे अनछुए लफ्ज़बस ये खामोशी है और कुछ बिखरी यादें ! लफ्जों को न पाकर उदासी और मायूसी के साथ एक-एक कर सारे अहसास वापस लौट जाते है ! मैं हमेशा की तरह बस देखता रह जाता हूँ इस श्याह काली रात की तरह नि:शब्द और खामोश !! --------------------
जब तक जियें हम
कुछ ऐसे जियें
ना हासिल हुआ ऐसा
कुछ भी नही !
और जब मरें हम
कुछ ऐसे मरें
जहाँ में हमारा तो
कुछ भी नही !
लोग जाते हैं
सब कुछ यहीं छोड़कर
मिलते हैं निशाँ,औरकुछ भी नही !
क्या आए थे करने
क्या करते रहे हम
सिवा प्यार के,औरकुछ भी नही !जी भर के पियो प्यास जब भी लगे नीर ही नीर है,औरकुछ भी नही !
दरिया है वक़्त का ये बहना है सबको इसमेंबेबस बुझा- बुझा सा तनहा मैं बह रहा हूँ !न बस में पकड़ सकूं उस कारवाँ को मैं उड़ती है जिसकी राह में गर्द -ए-सफर अभी तक !ना हक है रुक के राह मेंकरूँ उसका इंतजार आएगा मेरे बाद जो तनहा मेरी तरह !वक़्त-ए-सफर अलग है सबकी राह-ए-जिंदगी का मंजिल है सबकी एक मुझे बस इतनी ख़बर है !!
हम भी चले थे शौक से थी जिधर मंजिल मेरी दिल में था जोश-ओ-जुनूंऔर ख्वाब थे दौलत मेरी । नभ पे थी मेरी निगाहें उड़ने की चाहत मेरी होसलों के पंख थे औरसाथ थी हिम्मत मेरी । राह में पर्वत थे ऊँचे दूर थी मंजिल मेरी तूफ़ान पीछे रह गए थी चाल कुछ ऐसी मेरीथी मोहब्बत की सजा या बद'नसीबी ये मेरी फल कहो कर्मो का मेरे या कहो किस्मत मेरी । जिस जगह से एक कदम पर मुझसे थी मंजिल मेरी उस जगह पर ही खुदा ने छीन ली आँखें मेरी ।।