मंगलवार, 26 मई 2009

परी है तू

परियों की कहानी
सुनते थे
परियों के सपने
बुनते थे
तू ख्याल मेरा
तू मेरी सहर
तू मेरा तसव्वुर
परी है तू
चाँद फलक का
तेरा बसेरा
ताबीर है तू
मेरे ख्वाबों की
गुलशन की महक
रंगों की चमक
एक तेरे बिना
सब गायब थी
मेरा तन महका
मेरा मन महका
तेरे आने से
उपवन महका
गर ख्वाब है तू
मै सो जाऊ
तेरे सपनों मे
बस खो जाऊ।

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बुधवार, 13 मई 2009

रोज चूल्हे की तरह



मैं हर रोज एक हसरत को दफ़न करता हूँ।
रोज आँखें क्यूँ ? नया ख्वाब सजा लेती हैं॥

रोज गिरती है दर-ओ-दीवार मकां की मेरे।
उम्मीदें फ़िर उसी घर को क्यूँ? बना देती है॥

रोज चूल्हे की तरह जलते हैं दिल में अरमां।
दिल क्यूँ? उसी आग के शोलों को हवा देता है ॥

यहाँ ना कद्र मोहब्बत की ना कीमत है वफ़ा की !
'नीर' क्यूँ? रोज नए रिश्तों को बना लेता है॥


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शनिवार, 2 मई 2009

है कर्ज उस शहीद का

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वो भी लाल था किसी मात का
वो भी नूर था किसी आँख का
जो जला के अपनी ख्वाहिशें
तेरे आज को सजा गया !

ए- नौजवां तू जाग अब
ना जी मति को मारकर
जो खा रहे है देश को
दबोच और प्रहार कर !

जो भोग सारे त्याग कर
ख़ुद कफ़न को बांधकर
लहू की हर एक बूँद को
वतन की भेंट कर गया !

है कर्ज उस शहीद का
वो कर्ज तू उतार दे
है, खाल में जो भेड़ की
उन भेड़ियों को मार दे ! !

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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

कोई दरिया नही हूँ मैं



अब क्या डुबोयेंगीं मुझे
तूफां की ये मौजें
साहिल हूँ समुन्दर का
कोई कस्ती नहीं हूँ मैं !

अब क्या बुझायेंगी मुझे
गम की ये आंधियां
जलता हूँ अनल जैसे
कोई दीपक नहीं हूँ मैं !

ना खौफ रहबरी का
ना डर है दुश्मनों से
अभेद दुर्ग हूँ एक
कोई बस्ती नहीं हूँ मैं !

दरिया को मोड़ने का
रखता हूँ हौसला भी
जरा, लड़ने दे वक़्त से
अभी हारा नहीं हूँ मैं !

मंथन तो कर के देख
अमृत भी मिलेगा
समेटे हूँ मैं सागर को
कोई दरिया नही हूँ मैं !!

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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

ऊँची-ऊँची चट्टानों से



ऊँची-ऊँची चट्टानों से
'नीर' गिरा निर्झर कहलाया
चोट लगी जो तन-मन मेरे
जग निर्मोही देख ना पाया !

झर-झर,झर-झर बहता जाए
दर्द को अपने सहता जाए
कोई ना जाने पीर पराई
लहू जिस्म का कहता जाए !

मेरे दर पे जो भी आया
मैंने सबको प्यासा पाया
प्यास बुझाई मैंने उसकी
जिसने मुझको गले लगाया !

ना राही ना कोई मंजिल
देख के राहें पग बढ़ जाए
इस जीवन का सार यही है
औरों की खातिर मिट जाए !

दर्द ने मुझको कभी जमाया
कभी जला के भाप बनाया
रंगहीन पानी में सबने
अपना-अपना रंग मिलाया !


बुधवार, 1 अप्रैल 2009

छलक ना जाए लहू

इश्क में फूल चुने थे जो तेरी आंखों से !
बनके अब शूल उगे हैं वो मेरी आंखों से !!

काँप जाती है मेरी रूह वफ़ा की बातों से !
छलक ना जाए लहू दिल का मेरी आंखों से !!

मिलाई तुमसे नज़र हम ये भूल कर बैठे !
छिन गए सारे हसीं ख्वाब मेरी आंखों से !!

है ये हस्ती-ए-ज़ज्बात की आंधी के निशां !
बन के आँसू जो बहे आज मेरी आंखों से !!

लगी थी आग जो दिल में वो बुझा दी मैंने !
फ़िर क्यूँ ? उठता है धुंआ 'नीर' मेरी आंखों से !!



गुरुवार, 19 मार्च 2009

नि:शब्द और खामोश

श्याह काली रातों में
कुछ अहसासों के रेले
ख्वाहिशों की गठरी लेकर
मेरे पास आते हैं !

एक-एक कर सारे अहसास
अपनी ख्वाहिशों की गठरी
मेरे आगे खोलकर
मुझसे मांगते हैं !

उन सारे अनछुए लफ्जों को
जो मैंने कभी चुने थे
ख्वाहिशों के साथ मिलकर
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे लिए !

अब ना वो ख्वाहिशें है
ना वो सारे अनछुए लफ्ज़
बस ये खामोशी है और
कुछ बिखरी यादें !

लफ्जों को न पाकर
उदासी और मायूसी के साथ
एक-एक कर सारे अहसास
वापस लौट जाते है !

मैं हमेशा की तरह
बस देखता रह जाता हूँ
इस श्याह काली रात की तरह
नि:शब्द और खामोश !!
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