शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

समेटे हूँ मैं टुकड़ों को

सबब थी जीने का जो भी
हर उस ख्वाहिश ने दम तोडा
खामोशी इस कदर छाई
की सब ख्वाबों ने घर छोड़ा

दर--दीवार जिस घर की
मुझे जाँ से भी प्यारी थी
फ़क़त इस पेट की खातिर
मैंने उस घर को भी छोड़ा

तलाश--जीस्त में हमने
खाक छानी है सहरा की
मसर्रत छिन गई तब से
वतन जब से मैंने छोडा

वो पत्थर जिसको राहों से
हटाकर मैंने पूजा था
झुका सर जिसके सजदे में
उसी पत्थर ने सर फोड़ा

बची अब कोई हसरत
समेटे हूँ मैं टुकड़ों को
बसाया जिसको इस दिल में
उसी दिलबर ने दिल तोडा

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शनिवार, 29 अगस्त 2009

अश्क बनकर बह..

सहरा में भटकता राही और प्यास की व्याकुलता
भूख से बिलखते बच्चे की बेबस माँ का मर्म
बेटे की अर्थी से झुकता बेसहारा बाप का कन्धा
शूखती फसल के पत्तो को देखते किसान की बेकशी
बाढ़ में बहती जिंदगी और मौत के आलिंगन का अहसास
मेरे दिल में ऐसे ही कुछ
अहसासों का ज्वार उठता है
और मै बांधने लगता हूँ
उन सारे अहसासों को
शब्दों की डोरी से कविता की माला में
लेकिन ये अहसास, मेरी कलम रोक लेते है
और में सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस करता हूँ
इन अहसासों के बे-इंतिहा दर्द और बेबसी को
शायद कोई नही बांध सकता इन अहसासों को
तभी तो ये सारे अहसास
बरसाती नदी की तरह
सारे तटबंधों को तोड़कर
आँखों की संकरी गलियों से
अश्क बनकर बह जाते है॥

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शनिवार, 6 जून 2009

चकवे जैसी प्रीत मेरी



चाँद के जैसी सूरत तेरी
चकवे जैसी प्रीत है मेरी
जोगी जैसे फिरूं भटकता
इश्क कहे ये रीत है मेरी !

शमां हुस्न की परवाने को
ले बाँहों में जला रही है
हुस्न कहे, ले हार गया तू
इश्क कहे ये जीत है मेरी !

तेरे प्यार की एक बूँद में
जीवन डोर बंधी मेरी
मैं सदियों का प्यासा हूँ
चातक जैसी प्यास है मेरी !

जैसे चातक गगन निहारे
मैं यूँ राह तकूँ तेरी
इश्क समुन्दर मैं ना चाहूं
एक बूँद की प्यास है मेरी !

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मंगलवार, 26 मई 2009

परी है तू

परियों की कहानी
सुनते थे
परियों के सपने
बुनते थे
तू ख्याल मेरा
तू मेरी सहर
तू मेरा तसव्वुर
परी है तू
चाँद फलक का
तेरा बसेरा
ताबीर है तू
मेरे ख्वाबों की
गुलशन की महक
रंगों की चमक
एक तेरे बिना
सब गायब थी
मेरा तन महका
मेरा मन महका
तेरे आने से
उपवन महका
गर ख्वाब है तू
मै सो जाऊ
तेरे सपनों मे
बस खो जाऊ।

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बुधवार, 13 मई 2009

रोज चूल्हे की तरह



मैं हर रोज एक हसरत को दफ़न करता हूँ।
रोज आँखें क्यूँ ? नया ख्वाब सजा लेती हैं॥

रोज गिरती है दर-ओ-दीवार मकां की मेरे।
उम्मीदें फ़िर उसी घर को क्यूँ? बना देती है॥

रोज चूल्हे की तरह जलते हैं दिल में अरमां।
दिल क्यूँ? उसी आग के शोलों को हवा देता है ॥

यहाँ ना कद्र मोहब्बत की ना कीमत है वफ़ा की !
'नीर' क्यूँ? रोज नए रिश्तों को बना लेता है॥


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शनिवार, 2 मई 2009

है कर्ज उस शहीद का

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वो भी लाल था किसी मात का
वो भी नूर था किसी आँख का
जो जला के अपनी ख्वाहिशें
तेरे आज को सजा गया !

ए- नौजवां तू जाग अब
ना जी मति को मारकर
जो खा रहे है देश को
दबोच और प्रहार कर !

जो भोग सारे त्याग कर
ख़ुद कफ़न को बांधकर
लहू की हर एक बूँद को
वतन की भेंट कर गया !

है कर्ज उस शहीद का
वो कर्ज तू उतार दे
है, खाल में जो भेड़ की
उन भेड़ियों को मार दे ! !

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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

कोई दरिया नही हूँ मैं



अब क्या डुबोयेंगीं मुझे
तूफां की ये मौजें
साहिल हूँ समुन्दर का
कोई कस्ती नहीं हूँ मैं !

अब क्या बुझायेंगी मुझे
गम की ये आंधियां
जलता हूँ अनल जैसे
कोई दीपक नहीं हूँ मैं !

ना खौफ रहबरी का
ना डर है दुश्मनों से
अभेद दुर्ग हूँ एक
कोई बस्ती नहीं हूँ मैं !

दरिया को मोड़ने का
रखता हूँ हौसला भी
जरा, लड़ने दे वक़्त से
अभी हारा नहीं हूँ मैं !

मंथन तो कर के देख
अमृत भी मिलेगा
समेटे हूँ मैं सागर को
कोई दरिया नही हूँ मैं !!

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