गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

किसी की आँख से आंसू यूँ ही

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किसी की आँख से आंसू यूँ ही तो बह नहीं सकता !
कुछ ऐसे जख्म होते है जिन्हें दिल सह नहीं सकता !!

उन्हें मुझसे शिकायत है कि मैं ख़ामोश रहता हूँ !
मगर कुछ लोग कहते है कि मैं चुप रह नहीं सकता !!

हकीक़त है की हर बाजी अभी तक है मेरे हक में  !
बड़ा ज़ालिम जमाना है अभी कुछ कह नहीं सकता !!

मुझे मालूम है कड़वा बहुत होता है सच लेकिन !
मेरी फितरत ही ऐसी है कहे बिन रह नहीं सकता !!

बहुत मुश्किल है कुछ बातें छुपाकर दिल में रख पाना !
ये आँखें कह ही देती है जो 'निर्झर' कह नहीं सकता !!  


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सोमवार, 12 सितंबर 2011

सफ़र और मंजिल

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चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर 
रहगुज़र से बेरब्त
अकेले-अकेले
.............अफसोश !
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए  
इस बार चलना है 
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे  
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है 
हर उस अहसास को
जो छूट गया इस बार
सिर्फ और सिर्फ
मंजिल को पाने की
तड़फ और चाह में !

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मंगलवार, 10 मई 2011

चाँद माना धरा से बहुत दूर है !

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चाँद माना धरा से बहुत दूर है ! 
चांदनी ये मगर कब कहाँ दूर है !!

भटकता फिरूं में यहाँ से वहां !
ऱब इन्सान से कब कहाँ दूर है !!

किसी के लिए मांग मन से दुआ !
दुआ से असर कब कहाँ दूर है !!

ये माना तू मुझसे बहुत दूर है ! 
दिल ये मगर कब कहाँ दूर है !!

मिलते नहीं दो किनारे तो क्या !
बीच धारा बहे फिर कहाँ दूर है !!

स्याह काली सही रात ढल जाएगी !
सुबह रात से कब कहाँ दूर है !!

जला तो सही 'नीर' शम्म ए कलम !
कलम हाथ से कब कहाँ दूर है !!


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बुधवार, 4 मई 2011

हर आँगन में ख़ामोशी है

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हर आँगन में ख़ामोशी है
सब उजड़ा-उजड़ा लगता है
दिल में लावा पिघल रहा 
मन उखड़ा-उखड़ा लगता है
पथराई सी आँखें है  
हर पेट में पीठ समायी है  
ईमान बचा के रख्खा है 
मजदूर की यही कमाई है  
भावहीन है हर चेहरा 
हर चेहरे में ऱब दिखता है  
कौन यहाँ अहसास ख़रीदे 
ज़िस्म यहाँ पे बिकता है  
आन, मान, मर्यादा की 
बातें अब बहुत पुरानी है 
ना राम यहाँ के राजा है 
ना लक्ष्मीबाई रानी है


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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

लकीर-ए-दस्त का लिक्खा

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लकीर-ए-दस्त का लिक्खा समझ आया नहीं मुझको !   
तू ही मुज़रिम तू ही मुंसिफ़, गुनाह तेरा सजा मुझको !!
 
ये मौसम का बदलना तो, मुझे भी रास आता  है !
यूँ अपनों के बदलने का,चलन भाया नहीं मुझको !!

पढ़े शाम-ओ-सहर जिसने क़सीदे शान में मेरी !
वो ही अब ढूंढता है हाथ में खंजर लिए मुझको !!

अगर हो मौज तूफानी तो साहिल भी लरजता है !
समय का खेल है सारा, ना यूँ इल्जाम दे मुझको !!

लकीरें खींचकर कागज पे, कुछ खुदगर्ज लोगों ने !
वतन को बांटकर टुकड़ों में, बेघर कर दिया मुझको !!

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बुधवार, 15 दिसंबर 2010

तीरगी

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तू है ज़रदिमाग तुझे क्या कहूं
मेरे दर्द-ए-दिल का फ़लसफा
लिखी है मेरी शक्ल पे
मेरे रंज-ओ-गम की दास्ताँ
ना तो राहगुज़र के है नक्श-ए-पाँ
ना ही मंजिलों की कुछ खबर
मैं तो गर्द-ए-सफ़र का ग़ुबार हूँ
है ये सिम्त-ए-गैबाना सफ़र
जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ 
ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर 
इस रात की सुबह तो कर.

सिम्त-ए-गैबाना.....दिशाहीन 
बांग ...आवाज


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शनिवार, 25 सितंबर 2010

गले लगा तो जरा

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ना कर तर्क-ए-वफ़ा कांटे पे जरा तोलूँगा
खरा है कौन यहाँ सारे भरम खोलूँगा !

शूली पे चढ़ा दो या सर कलम कर दो
सच कड़वा ही सही मैं तो सच ही बोलूँगा !

सुना है शहर में आब-ओ-दाना मिलता है
भरे जो पेट, तो मै भी सड़क पे सो लूँगा !

हासिल हुआ है क्या तुझे घर मेरा जलाकर
मैं तो बेबस हूँ बहुत, भर के आह रो लूँगा !

अमन के बीज लिए फिरता हूँ अपने दामन में
रक्तरंजित है धरा फिर भी कहीं बो लूँगा

बहुत सहेज के रक्खी हैं भेंट यारों की
गले लगा तो जरा दिल की गिरह खोलूँगा !

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