बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

मैं तो इन्सान था इन्सान हूँ ।

जिंदगी के सफर का
वो मेरा पहला कदम
जब उठा ही था
पथरीले रास्तों पर



याद है मुझे आज भी..
किसी ने ठोकर मारी मुझे पत्थर समझकर
या फिर अनचाहे आ गया उन अनजाने क़दमों में
क्योंकि उसकी निंगाह् थी क्षितिज पर
और मैं सर-ए- राह ज़मीं पर

एक ठोकर क्या लगी सिलसिला बन गया
कोई जाने-अनजाने मारता कोई पत्थर समझकर
हाँ इन ठोकरों में हमने तय कर लिया
पथरीली राहों का एक लंबा रास्ता


याद है मुझे आज भी..
जब किसी ने कहा कितना सुंदर पत्थर है
ख़ुद को मुद्दत बाद देखा तो अहसास हुआ
ठोकरों ने मेरा रूप ही बदल दिया
मुझे सचमुच एक पत्थर बना दिया

कब मैं वक्त के पहिये में इन्सान से पत्थर बना
अपने इस बदलते रूप का मुझे पता भी ना चला
मुझे काट-छाँट कर मूर्तिकार ने एक नया आकार दिया
राम रूप देकर फिर मुझको मन्दिर में स्थान दिया


याद है मुझे आज भी ..
तुम ही तो हो पत्थर समझकर पहली ठोकर मारने वाले
आज भगवान समझकर सबसे पहले मांगने वाले
तुम मुझे तब भी ना जान सके ना आज पहचान सके
कभी पत्थर समझते हो, कभी भगवान

सच तो ये है
मैं ना पत्थर था ना भगवान हूँ
मैं तो इन्सान था
इन्सान हूँ॥

1 टिप्पणी:

रंजना ने कहा…

वाह..........बड़ी ही मार्मिक भावाभिव्यक्ति है.बात तो पीड़ा की है,पर काव्य रूप में ........बहुत सुंदर.