बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

कर्म और किस्मत

हम भी चले थे शौक से
थी जिधर मंजिल मेरी
दिल में था जोश-ओ-जुनूं
और ख्वाब थे दौलत मेरी ।

नभ पे थी मेरी निगाहें
उड़ने की चाहत मेरी
होसलों के पंख थे और
साथ थी हिम्मत मेरी ।

राह में पर्वत थे ऊँचे
दूर थी मंजिल मेरी
तूफ़ान पीछे रह गए
थी चाल कुछ ऐसी मेरी

थी मोहब्बत की सजा
या बद'नसीबी ये मेरी
फल कहो कर्मो का मेरे
या कहो किस्मत मेरी ।

जिस जगह से एक कदम पर
मुझसे थी मंजिल मेरी
उस जगह पर ही खुदा ने
छीन ली आँखें मेरी ।।