सोमवार, 12 सितंबर 2011

सफ़र और मंजिल

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चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर 
रहगुज़र से बेरब्त
अकेले-अकेले
.............अफसोश !
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए  
इस बार चलना है 
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे  
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है 
हर उस अहसास को
जो छूट गया इस बार
सिर्फ और सिर्फ
मंजिल को पाने की
तड़फ और चाह में !

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