मंगलवार, 25 मई 2010

खोयी थी खेल-खेल में........

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ख़ुद को ढूँढ़ता हूँ या खुदी को ढूँढ़ता हूँ
कैसी ये बेखुदी है मै किस को ढूँढ़ता हूँ !

कस्तूरी हिरन जैसे मैं भी दौड़ रहा हूँ
खुद से बाहर जाके ख़ुदा को ढूँढ़ता हूँ !

पढ़ ना सका हूँ मैं लिखा आज तक उसका
इन हाथों की लकीरों में मुकद्दर को ढूँढ़ता हूँ !

अश्कों के साथ-साथ सभी ख़्वाब बह गए
उन ख़ाक में खोये हुए ख्वाबों को ढूंढता हूँ !

खोयी थी खेल-खेल में कुछ ख़्वाहिशें मुझसे
उन ख्वाहिशों को आज भी राहों में ढूँढ़ता है !

दुनिया की भीड़ में हूँ इन्सां को ढूँढ़ता हूँ
गम के शहर में आके खुशियों को ढूँढ़ता हूँ !

तूफां के बीच में हूँ कस्ती को ढूँढ़ता हूँ
रेत के सहरा में निर्झर को ढूँढ़ता हूँ !

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गुरुवार, 13 मई 2010

सिर्फ तुम्हारे लिए !

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बरसों से 
दिल की तलहटी में दबी हुई
कुछ बेसूद उम्मीदें 
और
बेकार सी बातें
कुछ बेपर्दा ख्याल
और
बेनूर ख्वाब
कुछ बेज़ार ख्वाहिशें 
और 
बेरब्त तमन्नाएं
दिल की क़ैद से
बाहर आने को बेताब हैं
मैं भी तलाश रहा हूँ 
उन शब्दों को
जो समेट ले  
मेरे इन अहसासों को
जो सोख ले  
इस दर्द के सागर को
और में भी 
इन शब्दों के मोतियों को
प्यार के धागे में पिरोकर
बुन सकूँ
कविता की एक माला 
मैं तलाशता हूँ जिन्हें
हर रोज 
हर पल
हर जगह
वो सारे अनछुए शब्द
ना जाने कहाँ छुपे हैं
मुझे यकीं है
उम्र के आखिरी पड़ाव तक 
पा ही लूँगा 
उन सारे शब्दों को
जिनसे में बना सकूं
कविता की एक माला
तुम्हारे लिए
सिर्फ तुम्हारे लिए !


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