बुधवार, 14 अप्रैल 2010

क़ैद


ज़हन और दिल पे
तेरी यादों के साये
इस क़दर छाये है
जैसे
पहाड़ी कंदराओं के
आखिरी हिस्से में
छाया हुआ अँधेरा
वक़्त भी खड़ा है
पाएदार की तरह
एक ही जगह पर
ना सहर होती है
ना शाम ढलती है
उम्मीद की किरण भी 
दो कदम चलकर
दम तोड़ देती है
लगता है ये रूह
जिस्म से आज़ाद होकर भी
जन्मों तक भटकती रहेगी
इन अँधेरी गुफाओं में 
ए काश:तुम आते 
मुझे आज़ाद करने
इन यादों की
घनी क़ैद से
हमेशा-हमेशा के लिए.  

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