गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

कर कुछ ऐसा



कर कुछ ऐसा कि तेरे नाम को नाम मिले ।
वो जो पूछेगा तुझे कुछ तो बताना होगा ।।
भले उड़ जाये गगन में तू कहीं तक पंछी ।
धरा पे लौट के आखिर तो तुझे आना होगा ।।
ना हाथ पकड़ने वाले ना ही तिनकों के सहारे ।
भंवर से खुद ही निकलके तुझे आना होगा ।।
राहों में रौशनी के लिए जुगनू की तरह
अँधेरी रात में खुद को ही जलाना होगा ।।
खुद भी खो जायेगा निकला जो खोज में मेरी ।
कस्तूरी हूँ में मुझे खुद में ही तुझे पाना होगा ।।
ज़िन्दगी फिर से मिलेगी है यहाँ किसको पता ।
जी ले जी भर के इसे एक रोज तो जाना होगा ।। 


  

शनिवार, 25 जून 2016

'शाके'

 

मन करता है जयचंदों को शूली पे लटकाऊ में ।
कीकर के काँटों की डंडी इनपे खूब बजाऊं में ।
सुलग रहा है क्या-क्या दिल में कैसे  तुम्हें बताऊँ में ।  
कील ठोक कै सर में इनके वन्दे-मातरम गाउँ में ।।

है कुछ ऐसे जीव धरा पै जिन्हें निशाचर कहते हैं ।      
ये भी उनके ही बन्धु है बस बीच हमारे रहते है।
गरज पड़े तक ही ये अपनी मर्यादा में रहते है।
वर्ना तो ये बहन-बेटियों को भी रंडी कहते है ।।

अब भी ग़र हम नहीं जागे तो सोते ही रह जायेंगे ।
आने वाली नस्लों को आखिर क्या देकर जायेंगे ।
ग़र आँख मूँद कर बैठे तो फिर से 'शाके'* हो जायेंगे ।
सम्मान ही सब -कुछ होता है इसको भी खोकर जायेंगे ।।

* शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ |

 

 



मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

मील का पत्थर


तेरे जैसे कितने आये ,
जाने कितने आएंगे ,
दौड़ते चलते खिचड़ते , 
कितने ही मिल जायेंगे , 
राजा हो रंक सबके ,
नक्श-ए-पां  रह जायेंगे । 

तुझसे पहले मैं यहाँ था ,
बाद भी तेरे रहूँगा ,
साथ रहकर भी तुम्हारे ,
दूर तुमसे मैं रहूँगा ,
दर्द दिल में,हैं बहुत से ,
हँस के मैं सारे सहूंगा ।

पूछते हैं लोग मुझसे ,
मंजिलों के रास्ते ,
थक-हार के बैठा कोई ,
क्यूँ रहगुज़र के वास्ते ,
मील का पत्थर बना मैं ,
'नीर' किसके वास्ते ।