बुधवार, 15 दिसंबर 2010

तीरगी

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तू है ज़रदिमाग तुझे क्या कहूं
मेरे दर्द-ए-दिल का फ़लसफा
लिखी है मेरी शक्ल पे
मेरे रंज-ओ-गम की दास्ताँ
ना तो राहगुज़र के है नक्श-ए-पाँ
ना ही मंजिलों की कुछ खबर
मैं तो गर्द-ए-सफ़र का ग़ुबार हूँ
है ये सिम्त-ए-गैबाना सफ़र
जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ 
ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर 
इस रात की सुबह तो कर.

सिम्त-ए-गैबाना.....दिशाहीन 
बांग ...आवाज


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