बुधवार, 15 दिसंबर 2010

तीरगी

...................................................

तू है ज़रदिमाग तुझे क्या कहूं
मेरे दर्द-ए-दिल का फ़लसफा
लिखी है मेरी शक्ल पे
मेरे रंज-ओ-गम की दास्ताँ
ना तो राहगुज़र के है नक्श-ए-पाँ
ना ही मंजिलों की कुछ खबर
मैं तो गर्द-ए-सफ़र का ग़ुबार हूँ
है ये सिम्त-ए-गैबाना सफ़र
जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ 
ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर 
इस रात की सुबह तो कर.

सिम्त-ए-गैबाना.....दिशाहीन 
बांग ...आवाज


.............................................................

23 टिप्‍पणियां:

रचना दीक्षित ने कहा…

जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
वाह !!!वाह !!! वाह!!!!इतने दिनों बाद दर्शन दिए वो भी लाजवाब नगीने के साथ

Pratik Maheshwari ने कहा…

क्या खूब लिखा है आपने.. समझने में अवश्य कुछ वक़्त और मदद की ज़रूरत पड़ी पर समझने के बाद तो मज़ा ही आ गया..
यूँ ही अपनी कृतियों से वाकिफ करवाते रहें.. अच्छा पढने और सीखने को भी मिलेगा..

और उर्दू शब्दों के अर्थ भी दें तो हम जैसे नादानों के लिए बेहतर होगा..

रजनी चालीसा का जप करने ज़रूर पधारें ब्लॉग पर :)

आभार

Khare A ने कहा…

bahut khoob neer babu

achhi prastuti

रंजना ने कहा…

मंजी हुई भाषा,मन को छूते भाव और लाजवाब प्रवाह....आह आनंद आ गया पढ़कर...

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना !!!

बहुत दिनों बाद लिखा ,लेकिन जो लिखा तो एकदम संजोने लायक...

आशीष !!!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ

बहुत खूबसूरती से लिखी है नज़्म ....बहुत अच्छी

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर
इस रात की सुबह तो कर.

गहरी नज़्म है ... बहुत ही लाजवाब ... साहिर साहब की याद आ गयी ..

kshama ने कहा…

घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ
ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर
इस रात की सुबह तो कर.
Kya gazab likha hai! Wah! Bahut dinon baad aap nazar aaye hain!

जयंत - समर शेष ने कहा…

"मुझे रोशनी अता तो कर
इस रात की सुबह तो कर."

वाह भाई क्या बात है..
कुछ महीनों में आप तो और भी निखर गए हैं...

नीर तो मेरे भी आँख से टपका है..
बहुत सुन्दर...

Awadhesh Pandey ने कहा…

जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा.
====
Excellent!! Der se hi mili lekin dil ko chhoo jane valee rachana.

Unknown ने कहा…

bahut sundar ..man ko chuhu liya ...Excellent...!!!!

ktheLeo (कुश शर्मा) ने कहा…

नववर्ष की मंगल कामना!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

नया साल मुबारक हो ..

स्वाति ने कहा…

क्या खूब....बहुत ही लाजवाब...

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुंदर रचना लाजवाब| धन्यवाद|

Satish Saxena ने कहा…

शाबाश ........शुभकामनायें

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुंदर रचना लाजवाब| धन्यवाद|
आपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" ने कहा…

जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा

bahut bahut bahut khoobsoorat....

isse pichhle wali post...

हासिल हुआ है क्या तुझे घर मेरा जलाकर
मैं तो बेबस हूँ बहुत, भर के आह रो लूँगा !


अमन के बीज लिए फिरता हूँ अपने दामन में
रक्तरंजित है धरा फिर भी कहीं बो लूँगा


बहुत सहेज के रक्खी हैं भेंट यारों की
गले लगा तो जरा दिल की गिरह खोलूँगा

greattttttttt

bahut behtareeen lekhan hai aapka..........

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" ने कहा…

अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला

ye waali bhi bahut behtareen lagiiiiiiiiii

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" ने कहा…

पढ़ ना सका हूँ मैं लिखा आज तक उसका
इन हाथों की लकीरों में मुकद्दर को ढूँढ़ता हूँ !

अश्कों के साथ-साथ सभी ख़्वाब बह गए
उन ख़ाक में खोये हुए ख्वाबों को ढूंढता हूँ !

खोयी थी खेल-खेल में कुछ ख़्वाहिशें मुझसे
उन ख्वाहिशों को आज भी राहों में ढूँढ़ता है !

दुनिया की भीड़ में हूँ इन्सां को ढूँढ़ता हूँ
गम के शहर में आके खुशियों को ढूँढ़ता हूँ !

तूफां के बीच में हूँ कस्ती को ढूँढ़ता हूँ
रेत के सहरा में निर्झर को ढूँढ़ता हूँ !

greattttttttttttttttttt

aaj bahut kuchh padh liya aapke blog par!!!!!!!!!!!!

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

भई क्या बात है? बहुत ही उम्दा लिखा है। पढ़कर मज़ा आ गया जी।

जयंत - समर शेष ने कहा…

"ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर
इस रात की सुबह तो कर."

नहीं नहीं नहीं.... इतनी सुन्दर बात मैं बहुत दिनों से सुनी नहीं...
क्या कहें, लैब तो सील ही गए हैं,,,

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

प्रियवर निर्झर नीर जी
सादर सस्नेहाभिवादन !

बहुत ख़ूबसूरत नज़्म लिखी है आपने …

घिरी तीरगी मेरे चारसू
किसे हाथ दूं … किसे बांग दूं …
ए मेरे ख़ुदा ! मेरे नाख़ुदा !
मेरे सब्र का न ले इम्तिहां
मुझे रोशनी अता तो कर …

बहुत बधाई है !

लेकिन समय बहुत हो गया पोस्ट बदले हुए … आशा है, सपरिवार स्वस्थ - सानन्द हैं ।

आपके लिए बहुत सारी शुभकामनाएं नव वर्ष की !

शुभकामनाएं मकर संक्रांति की !

प्रणय दिवस सप्ताह भर पहले था
बसंत ॠतु तो अभी बहुत शेष है …
प्रणय दिवस की भी मंगलकामनाएं !

♥ प्यारो न्यारो ये बसंत है !♥
बसंत ॠतु की भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

ZEAL ने कहा…

.

ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर
इस रात की सुबह तो कर.

शब्द चयन भी सुन्दर और अभिव्यक्ति भी बेहतरीन ।

.