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लकीर-ए-दस्त का लिक्खा समझ आया नहीं मुझको !
तू ही मुज़रिम तू ही मुंसिफ़, गुनाह तेरा सजा मुझको !!
ये मौसम का बदलना तो, मुझे भी रास आता है !
यूँ अपनों के बदलने का,चलन भाया नहीं मुझको !!
अगर हो मौज तूफानी तो साहिल भी लरजता है !
पढ़े शाम-ओ-सहर जिसने क़सीदे शान में मेरी !
वो ही अब ढूंढता है हाथ में खंजर लिए मुझको !!
अगर हो मौज तूफानी तो साहिल भी लरजता है !
समय का खेल है सारा, ना यूँ इल्जाम दे मुझको !!
लकीरें खींचकर कागज पे, कुछ खुदगर्ज लोगों ने !
वतन को बांटकर टुकड़ों में, बेघर कर दिया मुझको !!
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