बुधवार, 15 दिसंबर 2010

तीरगी

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तू है ज़रदिमाग तुझे क्या कहूं
मेरे दर्द-ए-दिल का फ़लसफा
लिखी है मेरी शक्ल पे
मेरे रंज-ओ-गम की दास्ताँ
ना तो राहगुज़र के है नक्श-ए-पाँ
ना ही मंजिलों की कुछ खबर
मैं तो गर्द-ए-सफ़र का ग़ुबार हूँ
है ये सिम्त-ए-गैबाना सफ़र
जो ज़हीन थे चले गए
जला-जला के बस्तियां
में आग से लड़ता रहा
एक जुर्म सा करता रहा
घिरी तीरगी मेरे चार सू
किसे हाथ दूँ किसे बांग दूँ 
ए मेरे ख़ुदा मेरे नाख़ुदा
मेरे सब्र का ना ले इम्तिहा
मुझे रोशनी अता तो कर 
इस रात की सुबह तो कर.

सिम्त-ए-गैबाना.....दिशाहीन 
बांग ...आवाज


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शनिवार, 25 सितंबर 2010

गले लगा तो जरा

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ना कर तर्क-ए-वफ़ा कांटे पे जरा तोलूँगा
खरा है कौन यहाँ सारे भरम खोलूँगा !

शूली पे चढ़ा दो या सर कलम कर दो
सच कड़वा ही सही मैं तो सच ही बोलूँगा !

सुना है शहर में आब-ओ-दाना मिलता है
भरे जो पेट, तो मै भी सड़क पे सो लूँगा !

हासिल हुआ है क्या तुझे घर मेरा जलाकर
मैं तो बेबस हूँ बहुत, भर के आह रो लूँगा !

अमन के बीज लिए फिरता हूँ अपने दामन में
रक्तरंजित है धरा फिर भी कहीं बो लूँगा

बहुत सहेज के रक्खी हैं भेंट यारों की
गले लगा तो जरा दिल की गिरह खोलूँगा !

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मंगलवार, 17 अगस्त 2010

वक़्त की ताल पे...............

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वक़्त की ताल पे रक्स करता रहा
अश्क पी-पी के जख्मों को भरता रहा !

थोड़ा जीता रहा थोड़ा मरता रहा
मौत की राह में, खेल करता रहा !

नट की रस्सी के जैसी है ये ज़िन्दगी
नट के जैसे, में रस्सी पे चलता रहा !

उसकी नज़रों ने, मेरी कसम तोड़ दी 
मैं तो पीने से, तौबा ही करता रहा !

नफ़स चलती रही आह भरता रहा    
ज़िगर में कहीं ज़र्फ़ पलता रहा !

वक़्त को सर झुका, मुद्दई मर चुका
मुकद्दमा मगर फिर भी चलता रहा !

रात भर बांम पर दीप जलता रहा
चाँद भी अब्र की ओट चलता रहा !

ज़ीस्त क्या है, फकत मौत तक का सफ़र
मैं तो नाहक ही मंजिल से डरता रहा !
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रक्स...............नाँच
ज़र्फ़  ..............सहनशक्ति 

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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

ये पेच-ओ ख़म ज़माने के

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कभी सुर्ख़ी थी इस पे भी, ज़र्द जो आज है चेहरा
हर एक कतरा लहू का ज़िस्म से किसने जला डाला !

ये जाति धर्म की बातें ,ये बातें है सियासत की
सियासत की इन्ही बातों ने मुल्कों को जला डाला ! 


कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !


ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !


अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो  
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला !


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मंगलवार, 25 मई 2010

खोयी थी खेल-खेल में........

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ख़ुद को ढूँढ़ता हूँ या खुदी को ढूँढ़ता हूँ
कैसी ये बेखुदी है मै किस को ढूँढ़ता हूँ !

कस्तूरी हिरन जैसे मैं भी दौड़ रहा हूँ
खुद से बाहर जाके ख़ुदा को ढूँढ़ता हूँ !

पढ़ ना सका हूँ मैं लिखा आज तक उसका
इन हाथों की लकीरों में मुकद्दर को ढूँढ़ता हूँ !

अश्कों के साथ-साथ सभी ख़्वाब बह गए
उन ख़ाक में खोये हुए ख्वाबों को ढूंढता हूँ !

खोयी थी खेल-खेल में कुछ ख़्वाहिशें मुझसे
उन ख्वाहिशों को आज भी राहों में ढूँढ़ता है !

दुनिया की भीड़ में हूँ इन्सां को ढूँढ़ता हूँ
गम के शहर में आके खुशियों को ढूँढ़ता हूँ !

तूफां के बीच में हूँ कस्ती को ढूँढ़ता हूँ
रेत के सहरा में निर्झर को ढूँढ़ता हूँ !

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गुरुवार, 13 मई 2010

सिर्फ तुम्हारे लिए !

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बरसों से 
दिल की तलहटी में दबी हुई
कुछ बेसूद उम्मीदें 
और
बेकार सी बातें
कुछ बेपर्दा ख्याल
और
बेनूर ख्वाब
कुछ बेज़ार ख्वाहिशें 
और 
बेरब्त तमन्नाएं
दिल की क़ैद से
बाहर आने को बेताब हैं
मैं भी तलाश रहा हूँ 
उन शब्दों को
जो समेट ले  
मेरे इन अहसासों को
जो सोख ले  
इस दर्द के सागर को
और में भी 
इन शब्दों के मोतियों को
प्यार के धागे में पिरोकर
बुन सकूँ
कविता की एक माला 
मैं तलाशता हूँ जिन्हें
हर रोज 
हर पल
हर जगह
वो सारे अनछुए शब्द
ना जाने कहाँ छुपे हैं
मुझे यकीं है
उम्र के आखिरी पड़ाव तक 
पा ही लूँगा 
उन सारे शब्दों को
जिनसे में बना सकूं
कविता की एक माला
तुम्हारे लिए
सिर्फ तुम्हारे लिए !


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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

क़ैद


ज़हन और दिल पे
तेरी यादों के साये
इस क़दर छाये है
जैसे
पहाड़ी कंदराओं के
आखिरी हिस्से में
छाया हुआ अँधेरा
वक़्त भी खड़ा है
पाएदार की तरह
एक ही जगह पर
ना सहर होती है
ना शाम ढलती है
उम्मीद की किरण भी 
दो कदम चलकर
दम तोड़ देती है
लगता है ये रूह
जिस्म से आज़ाद होकर भी
जन्मों तक भटकती रहेगी
इन अँधेरी गुफाओं में 
ए काश:तुम आते 
मुझे आज़ाद करने
इन यादों की
घनी क़ैद से
हमेशा-हमेशा के लिए.  

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सोमवार, 22 मार्च 2010

ख्वाब और ख्याल

रात मैंने
एक ख्वाब को आवाज दी
ख्वाब के दस्तक देने से पहले
एक खूबसूरत ख्याल आया
और मुझे जगाकर
अपने साथ ले गया
चांदनी रात में
ख्वाब ने
सुबह तक इंतजार किया

क्या करें ?
ख्याल खूबसूरत हो तो
वक़्त का पता ही नहीं चलता
सहर हो गयी
ना ख्वाब रहा
ना ख्याल रहा
आँखें बोझिल है
आज दिन में भी
धुंध रहेगी 

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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

दुआ

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मांगी ये दुआ किसने
मेरी जिंदगी की खातिर
दामन छुड़ा के देखो
मेरी मौत जा रही है

तपते हुए सहरा में
दुआओं का करिश्मा है
घटा बनके सर पे देखो
मेरे साथ जा रही है

रोशन रहें ये राहें
इन गम के अंधेरों में
दुआ बनके दीप देखो
मेरे पास आ रही है

उसी रब का रूप हैं ये
कितना असर है इनमें
मंजिल भी चलके देखो
मेरे क़दमों में आ रही है

हर सू अमन हो जग में
हर माँ की ये दुआ है
धरती भी माँ है निर्झर
माँ आंसूँ बहा रही है !

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