मंगलवार, 6 जुलाई 2010

ये पेच-ओ ख़म ज़माने के

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कभी सुर्ख़ी थी इस पे भी, ज़र्द जो आज है चेहरा
हर एक कतरा लहू का ज़िस्म से किसने जला डाला !

ये जाति धर्म की बातें ,ये बातें है सियासत की
सियासत की इन्ही बातों ने मुल्कों को जला डाला ! 


कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !


ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !


अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो  
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला !


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