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कभी सुर्ख़ी थी इस पे भी, ज़र्द जो आज है चेहरा
हर एक कतरा लहू का ज़िस्म से किसने जला डाला !
ये जाति धर्म की बातें ,ये बातें है सियासत की
सियासत की इन्ही बातों ने मुल्कों को जला डाला !
कभी ना हम समझ पाए ये पेच-ओ ख़म ज़माने के
ये किसने छीन ली रोटी, ये किसने घर जला डाला !
ये कैसी भूख दौलत की ये कैसी रीत रिश्तों की
किसी की फूल सी बेटी को जिंदा ही जला डाला !
अमावस सी अँधेरी रात में कुछ तो उजाला हो
ये सोचकर निर्झर ने भी खुद को जला डाला !
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बुनियाद
3 हफ़्ते पहले