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ना कर तर्क-ए-वफ़ा कांटे पे जरा तोलूँगा
खरा है कौन यहाँ सारे भरम खोलूँगा !
शूली पे चढ़ा दो या सर कलम कर दो
सच कड़वा ही सही मैं तो सच ही बोलूँगा !
सुना है शहर में आब-ओ-दाना मिलता है
भरे जो पेट, तो मै भी सड़क पे सो लूँगा !
हासिल हुआ है क्या तुझे घर मेरा जलाकर
मैं तो बेबस हूँ बहुत, भर के आह रो लूँगा !
अमन के बीज लिए फिरता हूँ अपने दामन में
रक्तरंजित है धरा फिर भी कहीं बो लूँगा
बहुत सहेज के रक्खी हैं भेंट यारों की
गले लगा तो जरा दिल की गिरह खोलूँगा !