सोमवार, 12 दिसंबर 2011

गधों के सर पे ताज


एक नयी कोशिश की है .....मार्गदर्शन करें !

१..............................................
धनुष बनाया धर्म का, जात-पात के तीर !
ब्रह्मास्त्र से कम नहीं, ये घाव करे गंभीर !
घाव करे गंभीर, बचोगे कब तक प्यारे !
ये सब-कुछ लेंगे लूट, करेंगे वारे-न्यारे !
कह निर्झर कविराय, नींद से अब तो जागो !
कुछ कर्ज शहीदों का है, उससे यूँ ना भागो !!


२. ...........................................

कहाँ चिरैया सोने की, है यहाँ बाज़ का राज !
लोकतंत्र में भी होता है, गधों के सर पे ताज !
गधों के सर पे ताज, मरे सब बारी-बारी !
गद्दी पर बैठे हैं, जब-जब अत्याचारी !
कह निर्झर कविराय, सुनो संतों की वाणी !
मत बेचो दीन-इमान, करो ना यूँ मनमानी !!

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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

गलत क्या है ग़लतफ़हमी में

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आदत सी पड़ गयी है जीने की ग़लतफ़हमी में !
दिल बहल जाये, गलत क्या है ग़लतफ़हमी में !!

तारे फ़लक से तोड़ के लाया है भला कौन !
प्यार में यूँ भी जिए लोग ग़लतफ़हमी में !!

कहा ये किसने, गलत ग़म शराब करती है !
उम्र भर पीते रहे, हम भी ग़लतफ़हमी में !!

हाथ वो छोड़ भी सकता है बीच धारा में !
ये तो सोचा ही नहीं हमने ग़लतफ़हमी में !!

वक़्त ठहरा है कहाँ कब मौत ने मोहलत दी है !
'नीर' जीवन ही गंवा बैठे ग़लतफ़हमी में !!

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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

किसी की आँख से आंसू यूँ ही

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किसी की आँख से आंसू यूँ ही तो बह नहीं सकता !
कुछ ऐसे जख्म होते है जिन्हें दिल सह नहीं सकता !!

उन्हें मुझसे शिकायत है कि मैं ख़ामोश रहता हूँ !
मगर कुछ लोग कहते है कि मैं चुप रह नहीं सकता !!

हकीक़त है की हर बाजी अभी तक है मेरे हक में  !
बड़ा ज़ालिम जमाना है अभी कुछ कह नहीं सकता !!

मुझे मालूम है कड़वा बहुत होता है सच लेकिन !
मेरी फितरत ही ऐसी है कहे बिन रह नहीं सकता !!

बहुत मुश्किल है कुछ बातें छुपाकर दिल में रख पाना !
ये आँखें कह ही देती है जो 'निर्झर' कह नहीं सकता !!  


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सोमवार, 12 सितंबर 2011

सफ़र और मंजिल

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चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर 
रहगुज़र से बेरब्त
अकेले-अकेले
.............अफसोश !
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए  
इस बार चलना है 
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे  
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है 
हर उस अहसास को
जो छूट गया इस बार
सिर्फ और सिर्फ
मंजिल को पाने की
तड़फ और चाह में !

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मंगलवार, 10 मई 2011

चाँद माना धरा से बहुत दूर है !

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चाँद माना धरा से बहुत दूर है ! 
चांदनी ये मगर कब कहाँ दूर है !!

भटकता फिरूं में यहाँ से वहां !
ऱब इन्सान से कब कहाँ दूर है !!

किसी के लिए मांग मन से दुआ !
दुआ से असर कब कहाँ दूर है !!

ये माना तू मुझसे बहुत दूर है ! 
दिल ये मगर कब कहाँ दूर है !!

मिलते नहीं दो किनारे तो क्या !
बीच धारा बहे फिर कहाँ दूर है !!

स्याह काली सही रात ढल जाएगी !
सुबह रात से कब कहाँ दूर है !!

जला तो सही 'नीर' शम्म ए कलम !
कलम हाथ से कब कहाँ दूर है !!


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बुधवार, 4 मई 2011

हर आँगन में ख़ामोशी है

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हर आँगन में ख़ामोशी है
सब उजड़ा-उजड़ा लगता है
दिल में लावा पिघल रहा 
मन उखड़ा-उखड़ा लगता है
पथराई सी आँखें है  
हर पेट में पीठ समायी है  
ईमान बचा के रख्खा है 
मजदूर की यही कमाई है  
भावहीन है हर चेहरा 
हर चेहरे में ऱब दिखता है  
कौन यहाँ अहसास ख़रीदे 
ज़िस्म यहाँ पे बिकता है  
आन, मान, मर्यादा की 
बातें अब बहुत पुरानी है 
ना राम यहाँ के राजा है 
ना लक्ष्मीबाई रानी है


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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

लकीर-ए-दस्त का लिक्खा

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लकीर-ए-दस्त का लिक्खा समझ आया नहीं मुझको !   
तू ही मुज़रिम तू ही मुंसिफ़, गुनाह तेरा सजा मुझको !!
 
ये मौसम का बदलना तो, मुझे भी रास आता  है !
यूँ अपनों के बदलने का,चलन भाया नहीं मुझको !!

पढ़े शाम-ओ-सहर जिसने क़सीदे शान में मेरी !
वो ही अब ढूंढता है हाथ में खंजर लिए मुझको !!

अगर हो मौज तूफानी तो साहिल भी लरजता है !
समय का खेल है सारा, ना यूँ इल्जाम दे मुझको !!

लकीरें खींचकर कागज पे, कुछ खुदगर्ज लोगों ने !
वतन को बांटकर टुकड़ों में, बेघर कर दिया मुझको !!

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