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चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर
रहगुज़र से बेरब्त
अकेले-अकेले
.............अफसोश !
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए
इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है
हर उस अहसास को
जो छूट गया इस बार
सिर्फ और सिर्फ
मंजिल को पाने की
तड़फ और चाह में !
28 टिप्पणियां:
बहुत ही उम्दा ....बहुत ही उम्दा रचना .
सभी पंक्तियाँ एक से बढ़कर एक हैं .
आभार .....!
जो छूट गया इस बार
सिर्फ और सिर्फ
मंजिल को पाने की
तड़फ और चाह में !
.....वाह! क्या बात है!
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए
इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे.
बहुत सुंदर रचना और जिंदगी के अनुभवों से सीखते सीखते आगे बढ़ने की चाह. बधाई ब्लॉग पर फिर सक्रिय होने के लिए.
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए ...aaj ka dard , bakhoobi likha hai
वाह ...बहुत बढि़या ।
चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर
रहगुज़र से बेरब्त
अकेले-अकेले
बहुत ख़ूब ...
कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
बहुत सुंदर भावाव्यक्ति, बधाई.........
वाह....
बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
रिश्तों की डोर थामे
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है
बिलकुल यही फलसफा और दृष्टिकोण होना चाहिए जिन्दगी का...
मिली जो मंजिल
तो ये जाना कि
जिंदगी के टुकड़े तो
सफ़र में ही छूट गए
बहुत खूबसूरती से ज़िंदगी की भाग दौड को लिखा है ....सुन्दर अभिव्यक्ति ...
बहुत ही उम्दा ..बहुत सुंदर....
वाह ....बेहतरीन
जिंदगी में कुछ टुकड़े छूट हि जाते हैं.
बहुत सुन्दर.
bahut sunder ehsaso ko piroya hai rachna me.
dheere dheere chal kar chhoote hue ko bhi paya ja sakta hai. bahut khoob.
जब कभी ठोकर लगाती है
कुछ न कुछ बेशक सिखाती है.
दंडिका ले हाथ में अपने
जिंदगी सबको पढ़ाती है.
बेहतरीन रचना.
@इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
सुन्दर विचार!
बेहतरीन रचना.
बहुत सुन्दर लिखतें है आप.
निर्झर नीर की तरह भावों
का अनुपम प्रवाह मन मोहता है.
पहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.
मन्त्र मुग्ध हूँ.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
वाह! खूबसूरत लिखा है आपने..
जीवा की आपाधापी में लोग रिश्तों को भूल कर इतना बड़ा गुनाह कर रहे हैं.. यह आपने अपनी पंक्तियों में बखूबी जताया है!
आभार
तेरे-मेरे बीच पर आपके विचारों का इंतज़ार है...
जीवन की स्वयम्भूत पीडाओं ...अंतर्मन के मार्मिक भावों का सुन्दर चित्रण
bahut sundar.... aisa lga jaisa bhav lafjon me ubhar aaye hain..
.
पिछली पोस्ट की ग़ज़ल और यह कविता दोनों अभी पढ़ कर आनन्द लिया है … आपका आभार !
नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें
माता रानी आपकी हर मनोकामना पूरी करे ,आपको सूरज की तरह रोशन करे ,आपका स्नेह और हौला_अफज़ाई हमारे लिए शौभाग्य की बात है
भई वाह ! क्या खूब लिखा है ! सार्थक और उम्दा रचना!
आप फिर ख़तरा मोल ले रहे हैं। हर भौतिक लक्ष्य बार-बार अपूर्णता का अहसास कराएगा!
सुन्दर लिखा है.
इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे.
रिश्तों की डोर छूटने न पाए.
सुन्दर रचना
सफ़र में ही छूट गए
इस बार चलना है
धीरे-धीरे
रिश्तों की डोर थामे
सफ़र की ख़ुशबू और रंगों से
ज़िन्दगी का दामन सजाकर
.................जीना है
achha darshan...........
चलो चलते है
एक बार फिर
वापिस लौट के
वहीँ, जहाँ से दौड़े थे
जानिब-ए-मंजिल
राहों से बेखबर
kaash ..... kaash
utpal
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