रख धरा पै ये कदम, और
नभ पै रख अपनी निगाहें
तुम यक़ीनन छू ही लोगे
एक दिन तारों की बाहें ।।
ये कदम रुकने ना पायें
शीश भी झुकने ना पाए
हो भले काटों भरी
राही तेरे जीवन की राहें।।
बनके जुगनू आस तेरी
हर कदम रोशन करेगी
हो अँधेरा लाख चाहे
भोर को कब रोक पाये।।
तू कहीं सो जाएँ ना
रस्ते में तू खो जाए ना
है बहुत दिलकश बुराई
उसका तू हो जाए ना।।
साथ ये छूटे कभी ना
हौसले टूटे कभी ना
दोस्त, मिल जाये तो कहना
'नीर' से रूठे कभी ना।।
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-09-2015) को "बढ़ते पंडाल घटती श्रद्धा" (चर्चा अंक-2112) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
अनन्त चतुर्दशी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ख धरा पै ये कदम, और
नभ पै रख अपनी निगाहें
तुम यक़ीनन छू ही लोगे
एक दिन तारों की बाहें ।।
प्रेरणादायी रचना.
"दोस्त, मिल जाये तो कहना
'नीर' से रूठे कभी ना।।"
Dard hi dard hai... aur sundarta hi sundarata~!!
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