गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008

मैं हमराज़ हूँ हमदम तेरा ...

ज़र्द चेहरा,आँख वीरां जुल्फ उलझी हैं आज क्यूँ !
नग़मा वही,सरगम वही फ़िर ख़ामोश साज क्यूँ !!

जिस शख्स के दम से थी कभी रौनक-ए-महफिल !
तनहा है वही शख्स भरी महफिल में आज क्यूँ !!


जिन आंखों की मस्ती का दीवाना जहाँ था !
पुरनम है वही आँख महफिल में आज क्यूँ !!

बदला नही है कुछ भी, अम्बर से जमीं तक !
दिल के ये ज़जबात फिर बदले है आज क्यूँ !!


आती नही है लब पे तेरे दिल की बात क्यूँ !
मै हमराज़ हूँ हमदम तेरा हमसे भी राज़ क्यूँ !!


आँखें है झील तेरी दिल तेरा मयकदा है !
पहलू में 'नीर' तेरे, प्यासा है आज क्यूँ !!

3 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

बहुत बहुत सुंदर पंक्तिया.हर शब्द दर्द के रंग से सराबोर बिखर गयीं हैं चारों ओर.सुंदर मार्मिक अभिव्यक्ति.

अजय कुमार झा ने कहा…

bahut khoob, kya likhaa aapne, huzoor aapne to sachmuch neer baha dee, kya mohabbat mein hain. likhte rahein.

Abha Khetarpal ने कहा…

bahut khoob!