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बचपन याद नहीबस याद है मुझेजिम्मेदारियों के बोझ सेलड़कपन के लड़खड़ाते कदम इससे पहले की जवानी मेरे दर पे दस्तक देती में ताला लगा के चल दिया तलाश में रोटी की एक बार जब में गाँव गया थातब पता चला , वो आयी थी दर पे ताला देख उदास मन से मुझे ढूँढने शहर चली गयी कल किसी ने मुझे आवाज दी भीड़ में चारों तरफ़ देखा दूर , सड़क के उस पार से हाथ हिलाता एक अजनबी चेहराकशमकश के भाव लिए जब मै उसके पास गया उसने अपनी बाहों का हारमेरे गले में डाल दिया कहने लगी ,ऐसे क्या देखते हो में जवानी हूँ , तुम्हारी जवानी फिर आउंगी , अगले जनम में इस बार मेरा इंतजार करना में देखता रहा उसे जाते हुए और किसी ने आ पकड़ा मेरा हाथ कहने लगा ,में हूँ ना ! में बुढापा हूँ आज से तेरे साथ रहूंगा ।..........................................
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना है।
अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति. पढ़कर मन विह्वल हो गया....सत्य है,जिस तन लागे वो ही जाने......जिसपर गुजरती है वो ही दर्द की गहराई जान सकता है.....
परन्तु मेरा सुझाव है कि, बीती ताहि बिसारि दे......मन तो अपने अपने इसी शरीर में बंधा अपने स्वामी का अनुगामी होता है.जिस राह ले जाओगे,जैसा सोचोगे उसीके अनुरूप प्रतिक्रिया देगा.समय बीता कहाँ है,अभी तो युवावस्था की दहलीज पर पहुंचे ही हो.आगे बढो और पकड़ लो उसका हाथ.. आनंद बाहर नही भाई,मन के अन्दर होती है,लेकिन यदि उसे खदेड़कर भगा दोगे तो वह क्या करेगी.
जो बीत गई वो बात गई.......
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