जश्न मनाना छोड़ दिया क्यूँ? आते-जाते सालों का।
करता क्यूँ अफ़सोश नीर, इन सर के जाते बालों का।
ख्वाबो के घर खंडहर हो गए, राज हुआ अब जालों का।
घर में अब क्या बचा काम, इन खिड़की, कुण्डी-तालों का !!
काल देश पर निर्भर करती, सही गलत की परिभाषा।
शातिर को सज्जन की संज्ञा, दौर नया ये चालों का।
वही ठिठुरती रात पूस की, दम घुट रहा उजालों का।
जश्न मनाना छोड़ दिया अब, आते जाते सालों का !!
क्या खोया, क्या मैंने पाया, गणित लगाकर बैठा हूँ।
मोल नहीं तय कर पाया मैं, मैया तेरे निवालों का।
जो देश धर्म के लिए लहू की बूँद-बूँद दे चले गए।
कर्जदार मैं भी हूँ 'निर्झर' उन माओं के लालों का।
4 टिप्पणियां:
बहुत खूब .....सिर के कितने बाल झड़ गए जो लिखने में भी आ गया ।
बहुत दिनों बाद आपको पढ़ रही हूँ. बहुत अच्छी रचना। बधाई।
I think this is an informative post and it is very useful and knowledgeable. therefore, I would like to thank you for the efforts you have made in writing this article
बहुत सुंदर रचना। निर्झर सा नीर बह निकला भावों का।
एक टिप्पणी भेजें