जश्न मनाना छोड़ दिया क्यूँ? आते-जाते सालों का।
करता क्यूँ अफ़सोश नीर, इन सर के जाते बालों का।
ख्वाबो के घर खंडहर हो गए, राज हुआ अब जालों का।
घर में अब क्या बचा काम, इन खिड़की, कुण्डी-तालों का !!
काल देश पर निर्भर करती, सही गलत की परिभाषा।
शातिर को सज्जन की संज्ञा, दौर नया ये चालों का।
वही ठिठुरती रात पूस की, दम घुट रहा उजालों का।
जश्न मनाना छोड़ दिया अब, आते जाते सालों का !!
क्या खोया, क्या मैंने पाया, गणित लगाकर बैठा हूँ।
मोल नहीं तय कर पाया मैं, मैया तेरे निवालों का।
जो देश धर्म के लिए लहू की बूँद-बूँद दे चले गए।
कर्जदार मैं भी हूँ 'निर्झर' उन माओं के लालों का।